ओम् शान्ति।
मीठे-मीठे रूहानी बच्चों को रूहानी बाप बैठ समझाते हैं क्योंकि सभी बच्चे यह जानते
हैं - हम आत्मा हैं, अपने घर से हम बहुत दूर से यहाँ आते हैं। आकरके इस शरीर में
प्रवेश करते हैं, पार्ट बजाने। पार्ट आत्मा ही बजाती है। यहाँ बच्चे बैठे हैं अपने
को आत्मा समझ बाप की याद में क्योंकि बाप ने समझाया है याद से तुम बच्चों के
जन्म-जन्मान्तर के पाप भस्म होंगे। इसको योग भी नहीं कहना चाहिए। योग तो संन्यासी
लोग सिखलाते हैं। स्टूडेन्ट का टीचर से भी योग होता है, बच्चों का बाप से योग होता
है। यह है आत्माओं और परमात्मा का अर्थात् बच्चों और बाप का मेला। यह है कल्याणकारी
मिलन। बाकी तो सब हैं अकल्याणकारी। पतित दुनिया है ना। तुम जब प्रदर्शनी वा
म्यूज़ियम में समझाते हो तो आत्मा और परमात्मा का परिचय देना ठीक है। आत्मायें सब
बच्चे हैं और वह है परमपिता परम आत्मा जो परमधाम में रहते हैं। कोई भी बच्चे अपने
लौकिक बाप को परमपिता नहीं कहेंगे। परमपिता को दु:ख में ही याद करते हैं - हे
परमपिता परमात्मा। परम आत्मा रहते ही हैं परमधाम में। अब तुम आत्मा और परमात्मा का
ज्ञान तो समझाते हो तो सिर्फ यह नहीं समझाना है कि दो बाप हैं। वह बाप भी है,
शिक्षक भी है - यह जरूर समझाना है। हम सब भाई-भाई हैं, वह सभी आत्माओं का बाप है।
भक्तिमार्ग में सब भगवान् बाप को याद करते हैं क्योंकि भगवान् से भक्ति का फल मिलता
है अथवा बाप से बच्चे वर्सा लेते हैं। भगवान् भक्ति का फल देते हैं बच्चों को। क्या
देते हैं? विश्व का मालिक बनाते हैं। परन्तु तुमको सिर्फ बाप नहीं सिद्ध करना है।
वह बाप भी है तो शिक्षा देने वाला भी है, सतगुरू भी है। ऐसा समझाओ तो सर्वव्यापी का
ख्याल उड़ जाए। यह एड करो। वह बाबा ज्ञान का सागर है। आ करके राजयोग सिखलाते हैं।
बोलो, वह टीचर भी है शिक्षा देने वाला, तो फिर सर्वव्यापी कैसे हो सकता? टीचर जरूर
अलग है, स्टूडेन्ट अलग हैं। जैसे बाप अलग है, बच्चे अलग हैं। आत्मायें परमात्मा बाप
को याद करती हैं, उनकी महिमा भी करती हैं। बाप ही मनुष्य सृष्टि का बीजरूप है। वह आ
करके हमको मनुष्य सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त का ज्ञान सुनाते हैं। बाप स्वर्ग की
स्थापना करते हैं, हम स्वर्गवासी बनते हैं। साथ-साथ यह भी समझाते हैं कि दो बाप
हैं। लौकिक बाप ने पालना की फिर टीचर के पास जाना पड़ता है पढ़ने के लिए। फिर 60
वर्ष के बाद वानप्रस्थ अवस्था में जाने के लिए गुरू करना पड़ता है। बाप, टीचर, गुरू
अलग-अलग होते हैं। यह बेहद का बाप तो सभी आत्माओं का बाप है, ज्ञान सागर है। मनुष्य
सृष्टि का बीजरूप सत्-चित-आनन्द स्वरूप है। सुख का सागर, शान्ति का सागर है। उनकी
महिमा शुरू कर दो क्योंकि दुनिया में मतभेद बहुत हैं ना। सर्व-व्यापी अगर हो तो फिर
टीचर बन पढ़ायेंगे कैसे! फिर सतगुरू भी है, सभी को गाइड बन ले जाते हैं। शिक्षा देते
हैं अर्थात् याद सिखलाते हैं। भारत का प्राचीन राजयोग भी गाया हुआ है। पुराने ते
पुराना है संगमयुग। नई और पुरानी दुनिया का बीच। तुम समझते हो आज से 5 हज़ार वर्ष
पहले बाप ने आकर अपना बनाया था और हमारा टीचर-सतगुरू भी बना था। वह सिर्फ हमारा बाबा
नहीं है, वह तो ज्ञान का सागर अर्थात् टीचर भी है, हमको शिक्षा देते हैं। सृष्टि के
आदि-मध्य-अन्त का राज़ समझाते हैं क्योंकि बीजरूप, वृक्षपति है। वह जब भारत में आते
हैं तब भारत पर बृहस्पति की दशा बैठती है। सतयुग में सब सदा सुखी देवी-देवतायें होते
हैं। सब पर बृहस्पति की दशा बैठती है। जब फिर दुनिया तमोप्रधान होती है तो सभी पर
राहू की दशा बैठती है। वृक्षपति को कोई भी जानते नहीं। न जानने से फिर वर्सा कैसे
मिल सकता।
तुम यहाँ जब बैठते हो तो अशरीरी होकर बैठो। यह तो ज्ञान मिला है - आत्मा अलग है,
घर अलग है। 5 तत्व का पुतला (शरीर) बनता है, उसमें आत्मा प्रवेश करती है। सबका
पार्ट नूँधा हुआ है। पहले-पहले मुख्य बात यह समझानी है कि बाप सुप्रीम बाप है,
सुप्रीम टीचर है। लौकिक बाप, टीचर, गुरू का कान्ट्रास्ट बताने से झट समझेंगे, डिबेट
नहीं करेंगे। आत्माओं के बाप में सारा ज्ञान है। यह खूबी है। वही हमको रचना के
आदि-मध्य-अन्त का राज़ समझाते हैं। आगे ऋषि-मुनि आदि तो कहते थे हम रचता और रचना के
आदि-मध्य-अन्त को नहीं जानते क्योंकि उस समय वह सतो थे। हर चीज सतोप्रधान, सतो, रजो,
तमो में आती ही है। नई से पुरानी जरूर होती है। तुमको इस सृष्टि चक्र की आयु का भी
मालूम है। मनुष्य यह भूल गये हैं कि इनकी आयु कितनी है। बाकी यह शास्त्र आदि सब
भक्ति मार्ग के लिए बनाते हैं। बहुत गपोड़े लिख दिये हैं। सबका बाप तो एक ही है।
सद्गति दाता एक है। गुरू अनेक हैं। सद्गति करने वाला सतगुरू एक ही होता है। सद्गति
कैसे होती है - वह भी तुम्हारी बुद्धि में है। आदि सनातन देवी-देवता धर्म को ही
सद्गति कहा जाता है। वहाँ थोड़े मनुष्य ही होते हैं। अभी तो कितने ढेर मनुष्य हैं।
वहाँ तो सिर्फ देवताओं का राज्य होगा फिर डिनायस्टी वृद्धि को पाती है।
लक्ष्मी-नारायण दी फर्स्ट, सेकण्ड, थर्ड चलता है। जब फर्स्ट होगा तो कितने थोड़े
मनुष्य होंगे। यह ख्यालात भी सिर्फ तुम्हारे चलते हैं। यह तुम बच्चे समझते हो भगवान्
तुम सभी आत्माओं का बाप एक ही है। वह है बेहद का बाप। हद के बाप से हद का वर्सा
मिलता है, बेहद के बाप से बेहद का वर्सा मिलता है - 21 पीढ़ी स्वर्ग की बादशाही। 21
पीढ़ी अर्थात् जब बुढ़ापा होता है तब शरीर छोड़ते हैं। वहाँ अपने को आत्मा जानते
हैं। यहाँ देह-अभिमानी होने कारण जानते नहीं हैं कि आत्मा ही एक शरीर छोड़ दूसरा
लेती है। अब देह-अभिमानियों को आत्म-अभिमानी कौन बनावे? इस समय एक भी आत्म-अभिमानी
नहीं है। बाप ही आकर आत्म-अभिमानी बनाते हैं। वहाँ यह जानते हैं आत्मा एक बड़ा शरीर
छोड़ छोटा बच्चा जाकर बनेगी। सर्प का भी मिसाल है, यह सर्प भ्रमरी आदि के मिसाल सब
यहाँ के हैं और इस समय के हैं। जो फिर भक्ति मार्ग में भी काम में आते हैं। वास्तव
में ब्राह्मणियां तो तुम हो जो विष्टा के कीड़ों को भूँ-भूँ कर मनुष्य से देवता बना
देती हो। बाप में नॉलेज है ना। वही ज्ञान का सागर, शान्ति का सागर है। सभी शान्ति
मांगते रहते हैं। शान्ति देवा.... किसको पुकारते हैं? जो शान्ति का दाता अथवा सागर
है, उनकी महिमा भी गाते हैं परन्तु अर्थ रहित। कह देते हैं, समझते कुछ भी नहीं। बाप
कहते हैं यह वेद-शास्त्र आदि सब भक्ति मार्ग के हैं। 63 जन्म भक्ति करनी ही है।
कितने ढेर शास्त्र हैं। मैं कोई शास्त्र पढ़ने से नहीं मिलता हूँ। मुझे पुकारते भी
हैं आकर पावन बनाओ। यह है तमोप्रधान किचड़े की दुनिया जो कोई काम की नहीं। कितना
दु:ख है। दु:ख कहाँ से आया? बाप ने तो तुमको बहुत सुख दिया था फिर तुम सीढ़ी कैसे
उतरे? गाया भी जाता है ज्ञान और भक्ति। ज्ञान बाप सुनाते हैं, भक्ति रावण सिखलाते
हैं। देखने में न बाप आता, न रावण आता। दोनों को इन आंखों से नहीं देखा जाता। आत्मा
को समझा जाता है। हम आत्मा हैं तो आत्मा का बाप भी जरूर है। बाप फिर टीचर भी बनते
हैं, और ऐसा कोई होता ही नहीं।
अभी तुम 21 जन्म के लिए सद्गति को चक्र लेते हो, फिर गुरू की दरकार ही नहीं रहती।
बाप सबका बाप भी है, तो शिक्षक भी है, पढ़ाने वाला। सबका सद्गति करने वाला सतगुरू
सुप्रीम गुरू भी है। तीनों को तो सर्वव्यापी कह न सके। वह तो सृष्टि के
आदि-मध्य-अन्त का राज़ बताते हैं। मनुष्य याद भी करते हैं - हे पतित-पावन आओ, सर्व
के सद्गति दाता आओ, सबके दु:ख हरो, सुख दो। हे गॉड फादर, हे लिबरेटर। फिर हमारा
गाइड भी बनो - ले चलने के लिए। इस रावण राज्य से लिबरेट करो। रावण राज्य कोई लंका
में नहीं है। यह सारी धरनी जो है, उसमें इस समय रावण राज्य है। राम राज्य सिर्फ
सतयुग में ही होता है। भक्ति मार्ग में मनुष्य कितना मूँझ गये हैं।
अभी तुमको श्रीमत मिल रही है श्रेष्ठ बनने के लिए। सतयुग में भारत श्रेष्ठाचारी
था, पूज्य थे। अभी तक भी उन्हों को पूजते रहते हैं। भारत पर बृहस्पति की दशा थी तो
सतयुग था। अभी राहू की दशा में देखो भारत का क्या हाल हो गया है। सब अन-राइटियस बन
पड़े हैं। बाप राइटियस बनाते हैं, रावण अनराइटियस बनाते हैं। कहते भी हैं राम राज्य
चाहिए। तो रावण राज्य में हैं ना। नर्कवासी हैं। रावण राज्य को नर्क कहा जाता है।
स्वर्ग और नर्क आधा-आधा है। यह भी तुम बच्चे ही जानते हो - राम राज्य किसको और रावण
राज्य किसको कहा जाता है? तो पहले-पहले यह निश्चय बुद्धि बनाना है। वह हमारा बाप
है, हम सब आत्मायें ब्रदर्स हैं। बाप से सबको वर्सा मिलने का हक है। मिला था। बाप
ने राजयोग सिखलाकर सुखधाम का मालिक बनाया था। बाकी सब चले गये शान्तिधाम। यह भी
बच्चे जानते हैं वृक्षपति है चैतन्य। सत्-चित-आनन्द स्वरूप है। आत्मा सत्य भी है,
चैतन्य भी है। बाप भी सत् है, चैतन्य है, वृक्षपति है। यह उल्टा झाड़ है ना। इसका
बीज ऊपर में है। बाप ही आकर समझाते हैं जब तुम तमोप्रधान बन जाते हो तब बाप
सतोप्रधान बनाने आते हैं। हिस्ट्री-जॉग्राफी रिपीट होती है। अब तुमको कहते हैं
हिस्ट्री-जॉग्राफी.... अंग्रेजी अक्षर नहीं बोलो। हिन्दी में कहेंगे इतिहास-भूगोल।
अंग्रेजी तो सब लोग पढ़ते ही हैं। समझते हैं भगवान् ने गीता संस्कृत में सुनाई। अब
श्रीकृष्ण सतयुग का प्रिन्स। वहाँ यह भाषा थी, ऐसा तो लिखा हुआ नहीं है। भाषा है
जरूर। जो-जो राजा होता है उसकी भाषा अपनी होती है। सतयुगी राजाओं की भाषा अपनी होगी।
संस्कृत वहाँ नहीं है। सतयुग की रस्म-रिवाज ही अलग है। कलियुगी मनुष्यों की
रस्म-रिवाज अलग है। तुम सब मीरायें हो, जो कलियुगी लोक लाज़ कुल की मर्यादा पसन्द
नहीं करती हो। तुम कलियुगी लोक लाज़ छोड़ती हो तो झगड़ा कितना होता है। तुमको बाप
ने श्रीमत दी है - काम महाशत्रु है, इस पर जीत प्राप्त करो। जगत जीत बनने वालों का
यह चित्र भी सामने है। तुमको तो बेहद के बाप से राय मिलती है कि विश्व में शान्ति
स्थापन कैसे होगी? शान्ति देवा कहने से बाप ही याद आता है। बाप ही आकर कल्प-कल्प
विश्व में शान्ति स्थापन करते हैं। कल्प की आयु लम्बी कर देने से मनुष्य कुम्भकरण
की नींद में जैसे सोये पड़े हैं।
पहले-पहले तो मनुष्यों को यह पक्का निश्चय कराओ कि वह हमारा बाप भी है, टीचर भी
है। टीचर को सर्वव्यापी कैसे कहेंगे? तुम बच्चे जानते हो बाप कैसे आकर हमको पढ़ाते
हैं। तुम उनकी बायोग्राफी को जानते हो। बाप आते ही हैं - नर्क को स्वर्ग बनाने।
टीचर भी है फिर साथ भी ले जाते हैं। आत्मायें तो अविनाशी हैं। वह अपना पूरा पार्ट
बजाकर घर जाती हैं। ले जाने वाला गाइड भी तो चाहिए ना। दु:ख से लिबरेट करते हैं फिर
गाइड बन सबको ले जाते हैं। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) कलियुगी लोक लाज कुल की मर्यादा छोड़ ईश्वरीय कुल की मर्यादाओं को
धारण करना है। अशरीरी बाप जो सुनाते हैं वह अशरीरी होकर सुनने का अभ्यास पक्का करना
है।
2) बेहद का बाप, बाप भी है, टीचर भी है, सतगुरू भी है, यह कान्ट्रास्ट सभी को
समझाना है। यह सिद्ध करना है कि बेहद का बाप सर्वव्यापी नहीं है।