ओम् शान्ति।
अभी बच्चे जानते हैं कि हर एक को वर्सा मिलना है बाप से। भाई को भाई से कभी वर्सा
नहीं मिलता और फिर भाई वा बहन जो भी हैं उनको हरेक की अवस्था का पता नहीं पड़ता है।
सब समाचार बापदादा के पास आते हैं। यह है प्रैक्टिकल में। हर एक को अपने को देखना
है कि मैं कहाँ तक याद करता हूँ? कोई के नाम-रूप में कहाँ तक फँसा हुआ हूँ? हमारे
आत्मा की वृत्ति कहाँ-कहाँ तक जाती है? आत्मा खुद जानती है, अपने को आत्मा ही समझना
पड़े। हमारी वृत्ति एक शिवबाबा की तरफ जाती है या और कोई के नाम-रूप तरफ जाती है?
जितना हो सके अपने को आत्मा समझ एक बाप को याद करना है और सब भूलते जाना है। अपनी
दिल से पूछना है कि हमारी दिल सिवाए बाप के और कहाँ भटकती तो नहीं है? कहीं
धन्धे-धोरी में या घर-गृहस्थ, मित्र-सम्बन्धियों आदि तरफ बुद्धि जाती तो नहीं है?
अन्तर्मुखी होकर जांच करनी है। जब यहाँ आकर बैठते हो तो अपनी जांच करनी है। यहाँ
कोई न कोई सामने योग में बैठते हैं, वह भी शिवबाबा को ही याद करते होंगे। ऐसे नहीं,
अपने बच्चों को याद करते होंगे। याद तो शिवबाबा को ही करना है। यहाँ बैठे ही शिवबाबा
की याद में हो। फिर चाहे कोई आंखे खोलकर बैठे हैं वा आंखे बन्द कर बैठे हैं। यह तो
बुद्धि से समझ की बात है। अपनी दिल से पूछना होता है - बाबा, क्या समझाते हैं। हमको
तो याद करना है एक को। यहाँ जो बैठने वाले हैं, वह तो एक शिवबाबा की ही याद में
होंगे। तुमको नहीं देखेंगे क्योंकि उनको तो कोई की भी अवस्था का पता ही नहीं है। हर
एक का समाचार बाप के पास आता है। वह जानते हैं कौन-कौन बच्चे अच्छे हैं, जिनकी लाइन
क्लीयर है। उनका और कहाँ भी बुद्धियोग नहीं जाता है। ऐसे भी होते हैं, कोई का
बुद्धियोग जाता है। फिर मुरली सुनने से चेंज भी होते रहते हैं। फील करते हैं कि यह
तो हमारी भूल है। हमारी दृष्टि-वृत्ति बरोबर रांग थी। अब उनको राइट करना है। रांग
वृत्ति को छोड़ देना है। यह बाप समझाते हैं, भाई-भाई को नहीं समझा सकते। बाप ही
देखते हैं इनकी वृत्ति-दृष्टि कैसी है। बाप को ही सब दिल का हाल सुनाते हैं। शिवबाबा
को बताते हैं तो दादा समझ जाते हैं। हर एक के सुनाने से, देखने से भी समझते हैं। जब
तक सुने नहीं तब तक उनको क्या पता कि यह क्या करते हैं। एक्टिविटी से, सर्विस से
समझ जाते हैं कि इनको बहुत देह-अभिमान है, इनको कम, इनकी एक्टिविटी ठीक नहीं है।
कोई न कोई के नाम-रूप में फँसा रहता है। बाबा पूछते हैं, कोई की तरफ बुद्धि जाती
है? कोई साफ बतलाते हैं, कोई कोई फिर नाम-रूप में फँसे हुए ऐसे हैं, जो बताते ही नहीं
हैं। अपना ही नुकसान करते हैं। बाप को बतलाने से उनकी क्षमा होती है और फिर आगे के
लिए भी सम्भाल करते हैं। बहुत हैं जो अपनी वृत्ति सच नहीं बताते, लज्जा आती है। जैसे
कोई उल्टा काम करते हैं तो सर्जन को बताते नहीं हैं, परन्तु छिपाने से बीमारी और ही
वृद्धि को पायेगी। यहाँ भी ऐसे हैं। बाप को बताने से हल्के हो जाते हैं। नहीं तो वह
अन्दर में रहने से भारी रहेंगे। बाप को सुनाने से फिर दुबारा ऐसे नहीं करेंगे। आगे
के लिए अपने पर खबरदार भी रहेंगे। बाकी बतायेंगे नहीं तो वह वृद्धि को पाता रहेगा।
बाप जानते हैं यह सर्विसएबुल बहुत हैं, क्वालिफिकेशन कैसी रहती हैं, सर्विस में भी
कैसे रहते हैं? कोई के साथ लटके तो नहीं हैं? हर एक की जन्मपत्री को देखते हैं, फिर
इतना उनसे लव रखते हैं। कशिश करते हैं। कोई तो बहुत अच्छी सर्विस करते हैं। कभी भी
कहाँ उन्हों का बुद्धियोग नहीं जाता। हाँ, पहले जाता था, अब खबरदार हैं। बताते हैं
- बाबा, अब मैं खबरदार हूँ। आगे बहुत भूलें करते थे। समझते हैं देह-अभिमान में आने
से भूलें ही होंगी। फिर पद तो भ्रष्ट हो जायेगा। भल किसको पता नहीं पड़ता है, परन्तु
पद तो भ्रष्ट हो ही जायेगा। दिल की सफाई इसमें बहुत चाहिए तब तो ऊंच पद पायेंगे।
उनकी बुद्धि में बहुत सफाई रहती है, जैसे इन लक्ष्मी-नारायण की आत्मा में सफाई रहती
है ना, तब तो ऊंच पद पाया है। कोई-कोई के लिए समझा जाता है इनकी नाम-रूप की तरफ
वृत्ति है, देही-अभिमानी होकर नहीं रहते हैं, इस कारण पद भी कम होता गया है। राजा
से लेकर रंक तक, नम्बरवार पद तो हैं ना। यह क्यों होता है? इसको भी समझना चाहिए।
नम्बरवार तो जरूर बनते ही हैं। कलायें कम होती ही रहती हैं। जो 16 कला सम्पूर्ण हैं
वह फिर 14 कला में आ जाते हैं। ऐसे थोड़ा-थोड़ा कम होते-होते कलायें उतरती तो जरूर
हैं। 14 कला है तो भी अच्छा फिर वाम मार्ग में उतरते हैं तो विकारी बन जाते हैं, आयु
ही कम हो जाती है। फिर रजो, तमोगुणी बनते जाते हैं। कम होते-होते पुराने होते जाते
हैं। आत्मा शरीर से पुरानी होती जाती है। यह सारा ज्ञान अभी तुम बच्चों में है। कैसे
16 कला से नीचे उतरते-उतरते फिर मनुष्य बन जाते हैं। देवताओं की मत तो होती नहीं।
बाप की मत मिली फिर 21 जन्म मत मिलने की दरकार ही नहीं रहती है। यह ईश्वरीय मत
तुम्हारी 21 जन्म चलती है फिर जब रावण राज्य होता है तो तुमको मत मिलती है रावण की।
दिखाते भी हैं देवतायें वाम मार्ग में जाते हैं। और धर्म वालों की ऐसी बात नहीं होती
है। देवता जब वाम मार्ग में जाते हैं तब और धर्म वाले आते हैं।
बाप समझाते हैं - बच्चे, अभी तो तुम्हें वापिस जाना है। यह पुरानी दुनिया है। ड्रामा
में यह भी मेरा पार्ट है। पुरानी दुनिया को नया बनाना, यह भी तुम समझते हो। दुनिया
के मनुष्य तो कुछ नहीं जानते। तुम इतना समझाते हो फिर भी कोई अच्छी रूचि दिखाते
हैं, कोई तो फिर अपनी ही मत देते हैं। यह लक्ष्मी-नारायण जब थे तो पवित्रता, सुख,
शान्ति सब थी। पवित्रता की ही मुख्य बात है। मनुष्यों को यह पता नहीं है कि सतयुग
में देवता पवित्र थे। वह तो समझते हैं देवताओं को भी बच्चे आदि हुए हैं, परन्तु वहाँ
योगबल से कैसे पैदाइस होती है, यह किसको भी पता नहीं है। कहते हैं सारी आयु ही
पवित्र रहेंगे तो फिर बच्चे आदि कैसे होंगे। उन्हों को समझाना है इस समय पवित्र होने
से फिर हम 21 जन्म पवित्र रहते हैं। गोया श्रीमत पर हम वाइसलेस वर्ल्ड स्थापन कर रहे
हैं। श्रीमत है ही बाप की। गायन भी है मनुष्य से देवता.. अभी सब मनुष्य हैं जो फिर
देवता बनते हैं। अब श्रीमत पर हम डीटी गवर्मेन्ट स्थापन कर रहे हैं, इसमें प्योरिटी
तो बहुत मुख्य है। आत्मा को ही प्योर बनना है। आत्मा ही पत्थरबुद्धि बनी है, एकदम
क्लीयर कर बताओ। बाप ने ही सतयुगी डीटी गवर्मेन्ट स्थापन की थी, जिसको पैराडाइज़
कहते हैं। मनुष्य को देवता बाप ने ही बनाया। मनुष्य थे पतित, उनको पतित से पावन कैसे
बनाया? बच्चों को कहा - मामेकम् याद करो तो तुम पावन बन जायेंगे। यह बात तुम किसको
भी सुनायेंगे तो अन्दर में लगेगा। अब पतित से पावन कैसे बनेंगे? जरूर बाप को याद
करना होगा। और संग बुद्धि योग तोड़ एक संग जोड़ना है तब ही मनुष्य से देवता बन
सकेंगे। ऐसे समझाना चाहिए। तुमने जो समझाया वह ड्रामा अनुसार बिल्कुल ठीक था। यह तो
समझते हैं फिर भी दिन-प्रतिदिन प्वाइंट्स मिलती रहती हैं समझाने लिए। मूल बात है ही
कि हम पतित से पावन कैसे बनें! बाप कहते हैं देह के सभी धर्म छोड़ मामेकम् याद करो।
इस पुरूषोत्तम संगमयुग को भी तुम बच्चे ही जानते हो। हम अभी ब्राह्मण बने हैं,
प्रजापिता ब्रह्मा की सन्तान। बाप हमको पढ़ाते हैं। ब्राह्मण बनने बिगर हम देवता
कैसे बनेंगे। यह ब्रह्मा भी पूरे 84 जन्म लेते हैं, फिर उनको ही पहला नम्बर लेना
पड़ता है। बाप आकर प्रवेश करते हैं। तो मूल बात है ही एक - अपने को आत्मा समझ बाप
को याद करो। देह-अभिमान में आने से कहाँ न कहाँ लटके रहते हैं। देही-अभिमानी तो सब
बन न सकें। अपनी पूरी जांच करो - हम कहाँ देह-अभिमान में तो नहीं आते हैं? हमसे कोई
विकर्म तो नहीं होता है? बेकायदे चलन तो नहीं होती है? बहुतों से होती है। वह अन्त
में बहुत सज़ा के भागी बनेंगे। भल अभी कर्मातीत अवस्था नहीं हुई है। कर्मातीत अवस्था
वाले के सब दु:ख दूर हो जाते हैं। सज़ाओं से छूट जाते हैं। ख्याल किया जाता है -
नम्बरवार राजायें बनते हैं। जरूर किसका कम पुरूषार्थ रहता है, जिस कारण से सज़ा खानी
पड़ती है। आत्मा ही गर्भ जेल में सज़ा भोगती है। आत्मा जब गर्भ में है तो कहती है
हमको बाहर निकालो फिर हम पाप कर्म नहीं करेंगे। आत्मा ही सज़ा खाती है। आत्मा ही
कर्म विकर्म करती है। यह शरीर कोई काम का नहीं है। तो मुख्य बात अपने को आत्मा समझना
चाहिए। जो समझे बरोबर सब कुछ आत्मा करती है। अभी तुम सब आत्माओं को वापिस जाना है
तब ही यह ज्ञान मिलता है। फिर कभी यह ज्ञान मिलेगा नहीं। आत्म-अभिमानी सबको भाई-भाई
ही देखेंगे। शरीर की बात नहीं रहती है। सोल बन गये फिर शरीर में लगाव नहीं रहेगा
इसलिए बाप कहते हैं यह बहुत ऊंची स्टेज है। बहन-भाई में लटक पड़ते हैं तो बहुत
डिससर्विस करते हैं। आत्म-अभिमानी भव, इसमें ही मेहनत है। पढ़ाई में भी सब्जेक्ट
होती हैं। समझते हैं हम इसमें फेल हो जायेंगे। फेल होने कारण फिर और सब्जेक्ट में
भी ढीले हो पड़ते हैं। अभी तुम्हारी आत्मा बुद्धियोग बल से सोने का बर्तन होती जाती
है। योग नहीं तो नॉलेज भी कम, वह ताकत नहीं रहती है। योग का जौहर नहीं, यह है ड्रामा
की नूँध। बाबा समझाते हैं बच्चों को अपनी अवस्था कितनी बढ़ानी चाहिए। देखना है हम
आत्मा सारे दिन में कोई भी बेकायदे काम तो नहीं करते हैं। कोई भी ऐसी आदत हो तो
फौरन छोड़ देना चाहिए। परन्तु माया फिर भी दूसरे-तीसरे दिन भूल करा देती है। ऐसी
सूक्ष्म बातें चलती रहती हैं, यह है सब गुप्त ज्ञान। मनुष्य क्या जानें। तुम बतलाते
हो हम अपने ही खर्चे से अपने लिए सब कुछ करते हैं। दूसरों के खर्चे से कैसे बनायेंगे
इसलिए बाबा हमेशा कहते हैं - मांगने से मरना भला। सहज मिले सो दूध बराबर, मांग लिया
सो पानी। मांग कर कोई से लेते हो तो वह लाचारी काशी कलवट खाकर देते हैं, तो वह पानी
हो जाता है। खींच लिया वह रक्त बराबर.... कई बहुत तंग करते हैं, कर्जा उठाते हैं तो
वह रक्त समान हो जाता है। कर्जा लेने की कोई ऐसी दरकार नहीं है। दान देकर फिर वापिस
लिया, उस पर भी हरिश्चन्द्र का मिसाल है। ऐसा भी मत करो। हिस्सा रख दो, जो तुमको
काम भी आये। बच्चों को पुरूषार्थ इतना करना है जो अन्त में बाप की ही याद हो और
स्वदर्शन चक्र भी याद हो, तब प्राण तन से निकलें। तब ही चक्रवर्ती राजा बन सकेंगे।
ऐसे नहीं, पिछाड़ी में याद कर सकेंगे, उस समय ऐसी अवस्था हो जायेगी। नहीं, अभी से
पुरूषार्थ करते-करते उस अवस्था को अन्त तक ठीक बनाना है। ऐसा न हो कि पिछाड़ी में
वृत्ति कहाँ और तरफ चली जाये। याद करने से ही पाप कटते रहेंगे।
तुम बच्चे जानते हो पवित्रता की बात में ही मेहनत है। पढ़ाई में इतनी मेहनत नहीं
है। इस पर बच्चों का ध्यान अच्छा चाहिए। तब बाबा कहते हैं रोज़ अपने से पूछो - हमने
कोई बेकायदे काम तो नहीं किया? नाम-रूप में तो नहीं फँसता हूँ? किसको देख लट्टू तो
नहीं बनता हूँ? कर्मेन्द्रियों से कोई बेकायदे काम तो नहीं करता हूँ? पुराने पतित
शरीर से बिल्कुल लॅव नहीं होना चाहिए। वह भी देह-अभिमान हो जाता है। अनासक्त हो रहना
चाहिए। सच्चा प्यार एक से, बाकी सबसे अनासक्त प्यार। भले बच्चे आदि हैं परन्तु कोई
में भी आसक्ति न हो। जानते हैं यह जो कुछ भी देखते हैं, सब खत्म हो जायेगा। तो उनसे
प्यार सारा निकल जाता है। एक में ही प्यार रहे, बाकी नाम मात्र, अनासक्त। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) अपनी वृत्ति को बहुत शुद्ध, पवित्र बनाना है। कोई भी बेकायदे उल्टा
काम नहीं करना है। बहुत-बहुत खबरदार रहना है। बुद्धि कहाँ पर भी लटकानी नहीं है।
2) सच्चा प्यार एक बाप में रखना है, बाकी सबसे अनासक्त, नाम मात्र प्यार हो।
आत्म-अभिमानी स्टेज ऐसी बनानी है जो शरीर में भी लगाव न रहे।