14-10-2025 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन
“मीठेबच्चे - यह
पुरुषोत्तम संगमयुग कल्याणकारी युग है, इसमें ही परिवर्तन होता है, तुम कनिष्ट से
उत्तम पुरुष बनते हो''
प्रश्नः-
इस ज्ञान
मार्ग में कौन सी बात सोचने वा बोलने से कभी भी उन्नति नहीं हो सकती?
उत्तर:-
ड्रामा में
होगा तो पुरुषार्थ कर लेंगे। ड्रामा करायेगा तो कर लेंगे। यह सोचने वा बोलने वालों
की उन्नति कभी नहीं हो सकती। यह कहना ही रांग है। तुम जानते हो अभी जो हम पुरुषार्थ
कर रहे हैं, यह भी ड्रामा में नूँध है। पुरुषार्थ करना ही है।
गीत:-
यह कहानी है
दीवे और तूफान की........
ओम् शान्ति।
यह है कलियुगी मनुष्यों के गीत। परन्तु इनका अर्थ वह नहीं जानते। यह तुम जानते हो।
तुम हो अभी पुरुषोत्तम संगम-युगी। संगमयुग के साथ पुरुषोत्तम भी लिखना चाहिए। बच्चों
को ज्ञान की प्वाइंट्स याद न होने के कारण फिर ऐसे-ऐसे अक्षर लिखने भूल जाते हैं।
यह मुख्य है, इनका अर्थ भी तुम ही समझ सकते हो। पुरुषोत्तम मास भी होता है। यह फिर
है पुरुषोत्तम संगमयुग। यह संगम का भी एक त्योहार है। यह त्योहार सबसे ऊंच है। तुम
जानते हो अभी हम पुरुषोत्तम बन रहे हैं। उत्तम ते उत्तम पुरुष। ऊंच ते ऊंच साहूकार
से साहूकार नम्बरवन कहेंगे लक्ष्मी-नारायण को। शास्त्रों में दिखाते हैं - बड़ी
प्रलय हुई। फिर नम्बरवन श्रीकृष्ण पीपल के पत्ते पर सागर में आया। अभी तुम क्या
कहेंगे? नम्बरवन है यह श्रीकृष्ण, जिसको ही श्याम-सुन्दर कहते हैं। दिखाते हैं -
अगूंठा चूसता हुआ आया। बच्चा तो गर्भ में ही रहता है। तो पहले-पहले ज्ञान सागर से
निकला हुआ उत्तम ते उत्तम पुरुष श्रीकृष्ण है। ज्ञान सागर से स्वर्ग की स्थापना होती
है। उनमें नम्बरवन पुरुषोत्तम यह श्रीकृष्ण है और यह है ज्ञान का सागर, पानी का नहीं।
प्रलय भी होती नहीं। कई बच्चे नये-नये आते हैं तो बाप को फिर पुरानी प्वाइंट रिपीट
करनी पड़ती हैं। सतयुग-त्रेता-द्वापर-कलियुग...... यह 4 युग तो हैं। पांचवा फिर है
पुरुषोत्तम संगमयुग। इस युग में मनुष्य चेंज होते हैं। कनिष्ट से सर्वोत्तम बनते
हैं। जैसे शिवबाबा को भी पुरुषोत्तम वा सर्वोत्तम कहते हैं ना। वह है ही परम आत्मा,
परमात्मा। फिर पुरुषों में उत्तम हैं यह लक्ष्मी-नारायण। इन्हों को ऐसा किसने बनाया?
यह तुम बच्चे ही जानते हो। बच्चों को भी समझ में आया है। इस समय हम पुरुषार्थ करते
हैं ऐसा बनने के लिए। पुरुषार्थ कोई बड़ा नहीं है। मोस्ट सिम्पुल है। सीखने वाली भी
हैं अबलायें कुब्जायें, जो कुछ भी पढ़ी-लिखी नहीं हैं। उन्हों के लिए कितना सहज
समझाया जाता है। देखो अहमदाबाद में एक साधू था कहता था हम कुछ खाते-पीते नहीं हैं।
अच्छा कोई सारी आयु खाता-पीता नहीं फिर क्या? प्राप्ति तो कुछ नहीं है ना। झाड़ को
भी खाना तो मिलता है ना। खाद पानी आदि नेचुरल उनको मिलता है, जिससे झाड़ वृद्धि को
पाता है। उसने भी कोई रिद्धि-सिद्धि पाई होगी। ऐसे बहुत हैं जो आग से, पानी से चले
जाते हैं। इनसे भला फायदा क्या। तुम्हारा तो इस सहज राजयोग से जन्म-जन्मान्तर का
फायदा है। तुमको जन्म-जन्मान्तर के लिए दु:खी से सुखी बनाते हैं। बाप कहते हैं -
बच्चे, ड्रामा अनुसार हम तुमको गुह्य बातें सुनाता हूँ।
जैसे बाबा ने समझाया है शिव और शंकर को मिलाया क्यों है? शंकर का तो इस सृष्टि
में पार्ट ही नहीं है। शिव का, ब्रह्मा का, विष्णु का पार्ट है। ब्रह्मा और विष्णु
का आलराउन्ड पार्ट है। शिवबाबा का भी इस समय पार्ट है, जो आकर ज्ञान देते हैं। फिर
निर्वाणधाम में चले जाते हैं। बच्चों को जायदाद देकर खुद वानप्रस्थ में चले जाते
हैं। वानप्रस्थी बनना अर्थात् गुरू द्वारा वाणी से परे जाने का पुरुषार्थ करना।
परन्तु वापिस तो कोई जा नहीं सकते क्योंकि विकारी भ्रष्टाचारी हैं। विकार से जन्म
तो सबका होता है। यह लक्ष्मी-नारायण निर्विकारी हैं, उन्हों का विकार से जन्म नहीं
होता है इसलिए श्रेष्ठाचारी कहलाये जाते हैं। कुमारियां भी निर्विकारी हैं - इसलिए
उनके आगे माथा टेकते हैं। तो बाबा ने समझाया कि यहाँ शंकर का कोई पार्ट नहीं है,
बाकी प्रजापिता ब्रह्मा तो जरूर प्रजा का पिता हुआ ना। शिवबाबा को तो आत्माओं का
पिता कहेंगे। वह है अविनाशी पिता, यह गुह्य बातें अच्छी रीति धारण करनी हैं। जो
बड़े-बड़े फिलॉसाफर होते हैं, उनको बहुत टाइटिल मिलते हैं। श्री श्री 108 का टाइटिल
भी विद्वानों को मिलते हैं। बनारस के कॉलेज से पास कर टाइटिल ले आते हैं। बाबा ने
गुप्ता जी को इसलिए बनारस भेजा था कि उन्हों को जाकर समझाओ कि बाप का भी टाइटिल अपने
ऊपर रख बैठेहो। बाप को श्री श्री 108 जगतगुरू कहा जाता है। माला ही 108 की होती है।
8 रत्न गाये जाते हैं। वह पास विद् ऑनर होते हैं इसलिए उनको जपते हैं। फिर उनसे कम
108 की पूजा करते हैं। यज्ञ जब रचते हैं तो कोई 1000 सालिग्राम बनाते हैं, कोई 10
हज़ार, कोई 50 हज़ार, कोई लाख भी बनाते हैं। मिट्टी के बनाकर फिर यज्ञ रचते हैं।
जैसा-जैसा सेठ अच्छे ते अच्छा, बड़ा सेठ होगा तो लाख बनवायेंगे। बाप ने समझाया है
माला तो बड़ी है ना - 16108 की माला बनाते हैं। यह तुम बच्चों को बाप बैठ समझाते
हैं। तुम सभी भारत की सेवा कर रहे हो बाप के साथ। बाप की पूजा होती है तो बच्चों की
भी पूजा होनी चाहिए, यह नहीं जानते कि रूद्र पूजा क्यों होती है। बच्चे तो सब
शिवबाबा के हैं। इस समय सृष्टि की कितनी आदमशुमारी है इसमें सब आत्मायें शिवबाबा के
बच्चे ठहरे ना। परन्तु मददगार सब नहीं होते। इस समय तुम जितना याद करते हो उतना ऊंच
बनते हो। पूजन लायक बनते हो। ऐसे और कोई की ताकत नहीं जो यह बात समझाये इसलिए कह
देते ईश्वर का अन्त कोई नहीं जानते। बाप ही आकर समझाते हैं, बाप को ज्ञान का सागर
कहा जाता है तो जरूर ज्ञान देंगे ना। प्रेरणा की तो बात होती नहीं। भगवान कोई
प्रेरणा से समझाते हैं क्या। तुम जानते हो उनके पास सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त का
ज्ञान है। वह फिर तुम बच्चों को सुनाते हैं। यह तो निश्चय है - निश्चय होते हुए भी
फिर भी बाप को भूल जाते हैं। बाप की याद, यह है पढ़ाई का तन्त। याद की यात्रा से
कर्मातीत अवस्था को पाने में मेहनत लगती है, इसमें ही माया के विघ्न आते हैं। पढ़ाई
में इतने विघ्न नहीं आते। अब शंकर के लिए कहते हैं, शंकर आंख खोलते हैं तो विनाश
होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है। बाप कहते हैं - न मैं विनाश कराता हूँ, न वह करते
हैं, यह रांग है। देवतायें थोड़ेही पाप करेंगे। अब शिवबाबा बैठ यह बातें समझाते
हैं। आत्मा का यह शरीर है रथ। हर एक आत्मा की अपने रथ पर सवारी है। बाप कहते हैं
मैं इनका लोन लेता हूँ, इसलिए मेरा दिव्य अलौकिक जन्म कहा जाता है। अभी तुम्हारी
बुद्धि में 84 काचक्र है। जानते हो अभी हम घर जाते हैं, फिर स्वर्ग में आयेंगे। बाबा
बहुत सहज करके समझाते हैं, इसमें हार्ट-फेल नहीं होना है। कहते हैं बाबा हम
पढ़े-लिखे नहीं हैं। मुख से कुछ निकलता नहीं। परन्तु ऐसा तो होता नहीं। मुख तो जरूर
चलता ही है। खाना खाते हो मुख चलता है ना। वाणी न निकले यह तो हो नहीं सकता। बाबा
ने बहुत सिम्पुल समझाया है। कोई मौन में रहते हैं तो भी ऊपर में इशारा देते हैं कि
उनको याद करो। दु:ख हर्ता सुख कर्ता वह एक ही दाता है। भक्तिमार्ग में भी दाता है
तो इस समय में भी दाता है फिर वानप्रस्थ में तो है ही शान्ति। बच्चे भी शान्तिधाम
में रहते हैं। पार्ट नूँधा हुआ है, जो एक्ट में आता है। अभी हमारा पार्ट है - विश्व
को नया बनाना। उनका नाम बड़ा अच्छा है - हेविनली गॉड फादर। बाप रचयिता है स्वर्ग
का। बाप नर्क थोड़ेही रचेंगे। पुरानी दुनिया कोई रचते हैं क्या। मकान हमेशा नया
बनाया जाता है। शिवबाबा नई दुनिया रचते हैं ब्रह्मा द्वारा। इनको पार्ट मिला हुआ है
- यहाँ पुरानी दुनिया में जो भी मनुष्य हैं, सब एक-दो को दु:ख देते रहते हैं।
तुम जानते हो हम हैं शिवबाबा की सन्तान। फिर शरीरधारी प्रजापिता ब्रह्मा के बच्चे
हो गये एडाप्टेड। हमको ज्ञान सुनाने वाला है शिवबाबा रचयिता। जो अपनी रचना के
आदि-मध्य-अन्त का ज्ञान सुनाते हैं। तुम्हारी एम ऑबजेक्ट ही है यह बनना। मनुष्य देखो
कितना खर्चा कर मार्बल आदि की मूर्तियां बनाते हैं। यह है ईश्वरीय विश्व विद्यालय,
वर्ल्ड युनिवर्सिटी। सारी युनिवर्स को चेंज किया जाता है। उन्हों के जो भी
कैरेक्टर्स हैं सब आसुरी। आदि-मध्य-अन्त दु:ख देने वाले हैं। यह है ईश्वरीय
युनिवर्सिटी। ईश्वरीय विश्व विद्यालय एक ही होता है, जो ईश्वर आकर खोलते हैं, जिससे
सारी विश्व का कल्याण हो जाता है। तुम बच्चों को अब राइट और रांग की समझ मिलती है
और कोई मनुष्य नहीं जो समझता हो। राइट रांग को समझाने वाला एक ही राइटियस होता है,
जिसको ट्रूथ कहते हैं। बाप ही आकर हर एक को राइटियस बनाते हैं। राइटियस बनेंगे तो
फिर मुक्ति में जाकर जीवनमुक्ति में आयेंगे। ड्रामा को भी तुम बच्चे जानते हो। आदि
से लेकर अन्त तक पार्ट बजाने नम्बरवार आते हो। यह खेल चलता ही रहता है। ड्रामा शूट
होता जाता है। यह एवर न्यु है। यह ड्रामा कभी पुराना नहीं होता है, और सब नाटक आदि
विनाश हो जाते हैं। यह बेहद का अविनाशी ड्रामा है। इनमें सब अविनाशी पार्टधारी हैं।
अविनाशी खेल वा माण्डवा देखो कितना बड़ा है। बाप आकर पुरानी सृष्टि को फिर नया बनाते
हैं। वह सब तुमको साक्षात्कार होगा। जितना नज़दीक आयेंगे फिर तुमको खुशी होगी।
साक्षात्कार करेंगे। कहेंगे अब पार्ट पूरा हुआ। ड्रामा को फिर रिपीट करना है। फिर
नयेसिर पार्ट बजायेंगे, जो कल्प पहले बजाया है। इसमें ज़रा भी फ़र्क नहीं हो सकता
है, इसलिए जितना हो सके तुम बच्चों को ऊंच पद पाना चाहिए। पुरुषार्थ करना है, मूंझना
नहीं है। ड्रामा को जो कराना होगा वो करायेगा - यह कहना भी रांग है। हमको तो
पुरुषार्थ करना ही है। अच्छा!
मीठे-मीठेसिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) पढ़ाई का तन्त (सार) बुद्धि में रख याद की यात्रा से कर्मातीत अवस्था
को पाना है। ऊंच, पूज्यनीय बनने के लिए बाप का पूरा-पूरा मददगार बनना है।
2) सत्य बाप द्वारा राइट-रांग की जो समझ मिली है, उससे राइटियस बन जीवन बंध से
छूटना है। मुक्ति और जीवनमुक्ति का वर्सा लेना है।
वरदान:-
आपस में स्नेह
की लेन-देन द्वारा सर्व को सहयोगी बनाने वाले सफलतामूर्त भव
अभी ज्ञान देने और लेने की
स्टेज पास की, अब स्नेह की लेन-देन करो। जो भी सामने आये, सम्बन्ध में आये तो स्नेह
देना और लेना है - इसको कहा जाता है सर्व के स्नेही व लवली। ज्ञान दान अज्ञानियों
को करना है लेकिन ब्राह्मण परिवार में इस दान के महादानी बनो। संकल्प में भी किसके
प्रति स्नेह के सिवाए और कोई उत्पत्ति न हो। जब सभी के प्रति स्नेह हो जाता है तो
स्नेह का रिसपॉन्स सहयोग होता है और सहयोग की रिजल्ट सफलता प्राप्त होती है।
स्लोगन:-
एक
सेकण्ड में व्यर्थ संकल्पों पर फुल स्टॉप लगा दो - यही तीव्र पुरुषार्थ है।
मातेश्वरी जी के
अनमोल महावाक्य
आजकल मनुष्य मुक्ति
को ही मोक्ष कहते हैं, वो ऐसे समझते हैं जो मुक्ति पाते हैं वो जन्म मरण से छूट जाते
हैं। वो लोग तो जन्म-मरण में न आना इसको ही ऊंच पद समझते हैं, वही प्रालब्ध मानते
हैं। जीवनमुक्ति फिर उसको समझते हैं जो जीवन में रहकर अच्छा कर्म करते हैं, जैसे
धर्मात्मा लोग हैं, उन्हों को जीवनमुक्त समझते हैं। बाकी कर्मबन्धन से मुक्त हो जाना
वो तो कोटों में से कोई विरला ही समझते हैं, अब यह है उन्हों की अपनी मत। लेकिन हम
तो परमात्मा द्वारा जान चुके हैं कि जब तक मनुष्य पहले विकारी कर्मबन्धन से मुक्त
नहीं हुआ है तब तक आदि-मध्य-अन्त दु:ख से छूट नहीं सकेंगे, तो इससे छूटना यह भी एक
स्टेज है। तो भी पहले जब ईश्वरीय नॉलेज को धारण करे तब ही उस स्टेज पर पहुँच सके और
उस स्टेज पर पहुँचाने वाला स्वयं परमात्मा चाहिए क्योंकि मुक्ति जीवनमुक्ति देते वह
हैं, वो भी एक ही समय आए सबको मुक्ति-जीवनमुक्ति दे देते हैं। बाकी परमात्मा कोई
अनेक बार नहीं आते और न कि ऐसा समझो कि परमात्मा ही सब अवतार धारण करते हैं। ओम्
शान्ति।
अव्यक्त इशारे -
स्वयं और सर्व के प्रति मन्सा द्वारा योग की शक्तियों का प्रयोग करो
मन्सा-सेवा बेहद
की सेवा है। जितना आप मन्सा से, वाणी से स्वयं सैम्पल बनेंगे, तो सैम्पल को देखकर
स्वत: ही आकर्षित होंगे। सिर्फ दृढ़ संकल्प रखो तो सहज सेवा होती रहेगी। अगर वाणी
के लिए समय नहीं है तो वृत्ति से, मन्सा सेवा से परिवर्तन करने का समय तो है ना। अब
सेवा के सिवाए समय गँवाना नहीं है। निरन्तर योगी, निरन्तर सेवाधारी बनो। यदि
मन्सा-सेवा करना नहीं आता तो अपने सम्पर्क से, अपनी चलन से भी सेवा कर सकते हो।