ओम् शान्ति।
बाप बैठ बच्चों को समझाते हैं - बच्चे, जब कोई नया आता है तो उनको पहले हद और बेहद,
दो बाप का परिचय दो। बेहद का बाबा माना बेहद की आत्माओं का बाप। वह हद का बाप, हरेक
जीव आत्मा का अलग है। यह नॉलेज भी सभी एकरस धारण नहीं कर सकते। कोई एक परसेन्ट, कोई
95 परसेन्ट धारण करते हैं। यह तो समझ की बात है, सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी घराना होगा
ना। राजा, रानी तथा प्रजा। प्रजा में सभी प्रकार के मनुष्य होते हैं। प्रजा माना ही
प्रजा। बाप समझाते हैं यह पढ़ाई है, हर एक अपनी बुद्धि अनुसार ही पढ़ते हैं। हर एक
को अपना-अपना पार्ट मिला हुआ है। जिसने कल्प पहले जितनी पढ़ाई धारण की है, उतनी अभी
भी करते हैं। पढ़ाई कभी छिपी नहीं रह सकती है। पढ़ाई अनुसार पद भी मिलता है। बाप ने
समझाया है, आगे चल इम्तहान होगा। बिगर इम्तहान के ट्रांसफर हो न सकें। तो पिछाड़ी
में सब मालूम पड़ेगा। परन्तु अभी भी समझ सकते हो हम किस पद के लायक हैं? भल लज्जा
के मारे सभी हाथ उठा लेते हैं परन्तु समझ सकते हैं, ऐसे हम कैसे बन सकते हैं! फिर
भी हाथ उठा देते हैं। यह भी अज्ञान ही कहेंगे। बाप तो झट समझ जाते हैं कि इससे तो
जास्ती अक्ल लौकिक स्टूडेन्ट में होता है। वह समझते हैं हम स्कॉलरशिप लेने लायक नहीं
हैं, पास नहीं होंगे। वह समझते हैं, टीचर जो पढ़ाते हैं उसमें हम कितने मार्क्स
लेंगे? ऐसे थोड़ेही कहेंगे कि हम पास विद् ऑनर होंगे। यहाँ तो कई बच्चों में इतनी
भी अक्ल नहीं है, देह-अभिमान बहुत है। भल आये हैं यह (देवता) बनने के लिए परन्तु ऐसी
चलन भी तो चाहिए। बाप कहते हैं विनाश काले विपरीत बुद्धि क्योंकि कायदेसिर बाप से
प्रीत नहीं है।
बाप तुम बच्चों को समझाते हैं कि विनाश काले विपरीत बुद्धि का यथार्थ अर्थ क्या
है? बच्चे ही पूरा नहीं समझ सकते हैं तो फिर वह क्या समझेंगे? बाप को याद करना - यह
तो हुई गुप्त बात। पढ़ाई तो गुप्त नहीं है ना। पढ़ाई में नम्बरवार होते हैं। एक जैसा
थोड़ेही पढ़ेंगे। बाबा समझते हैं अभी तो बेबी हैं। ऐसे बेहद के बाप को तीन-तीन,
चार-चार मास याद भी नहीं करते हैं। मालूम कैसे पड़े कि याद करते हैं? बाप को पत्र
तक नहीं लिखते कि बाबा मैं कैसे-कैसे चल रहा हूँ, क्या-क्या सर्विस करता हूँ? बाप
को बच्चों की कितनी फिक्र रहती है कि कहाँ बच्चा मूर्छित तो नहीं हो गया है, कहाँ
बच्चा मर तो नहीं गया? कोई तो बाबा को कितना अच्छा-अच्छा सर्विस समाचार लिखते हैं।
बाप भी समझते, बच्चा जीता है। सर्विस करने वाले बच्चे कभी छिप नहीं सकते। बाप तो हर
बच्चे का दिल लेते हैं कि कौन-सा बच्चा कैसा है? देह-अभिमान की बीमारी बहुत कड़ी
है। बाबा मुरली में समझाते हैं, कइयों को तो ज्ञान का उल्टा नशा चढ़ जाता है,
अहंकार आ जाता है फिर याद भी नहीं करते, पत्र भी नहीं लिखते। तो बाप भी याद कैसे
करेंगे? याद से याद मिलती है। अभी तुम बच्चे बाप को यथार्थ जानकर याद करते हो, दिल
से महिमा करते हो। कई बच्चे बाप को साधारण समझते हैं इसलिए याद नहीं करते। बाबा कोई
भभका आदि थोड़ेही दिखायेगा। भगवानु-वाच, मैं तुम्हें विश्व की राजाई देने के लिए
राजयोग सिखलाता हूँ। तुम ऐसे थोड़ेही समझते हो कि हम विश्व की बादशाही लेने के लिए
बेहद के बाप से पढ़ते हैं। यह नशा हो तो अपार खुशी का पारा सदा चढ़ा रहे। गीता पढ़ने
वाले भल कहते हैं - श्रीकृष्ण भगवानुवाच, मैं राजयोग सिखलाता हूँ, बस। उन्हें राजाई
पाने की खुशी थोड़ेही रहेगी। गीता पढ़कर पूरी की और गये अपने-अपने धन्धेधोरी में।
तुमको तो अभी बुद्धि में है कि हमको बेहद का बाप पढ़ाते हैं। उन्हें ऐसा बुद्धि में
नहीं आयेगा। तो पहले-पहले कोई भी आये तो उनको दो बाप का परिचय देना है। बोलो भारत
स्वर्ग था, अभी नर्क है। यह कलियुग है, इसे स्वर्ग थोड़ेही कहेंगे। ऐसे तो नहीं
कहेंगे कि सतयुग में भी हैं, कलियुग में भी हैं। किसको दु:ख मिला तो कहेंगे नर्क
में हैं, किसको सुख है तो कहेंगे स्वर्ग में हैं। ऐसे बहुत कहते हैं - दु:खी मनुष्य
नर्क में हैं, हम तो बहुत सुख में बैठे हैं, महल माड़ियाँ, मोटरें आदि हैं, समझते
हैं हम तो स्वर्ग में हैं। गोल्डन एज, आइरन एज एक ही बात है।
तो पहले-पहले दो बाप की बात बुद्धि में बिठानी है। बाप ही खुद अपनी पहचान देते
हैं। वह सर्वव्यापी कैसे हो सकता है? क्या लौकिक बाप को सर्वव्यापी कहेंगे? अभी तुम
चित्र में दिखाते हो आत्मा और परमात्मा का रूप तो एक ही है, उसमें फ़र्क नहीं। आत्मा
और परमात्मा कोई छोटा-बड़ा नहीं। सभी आत्मायें हैं, वह भी आत्मा है। वह सदा परमधाम
में रहते हैं इसलिए उन्हें परम आत्मा कहा जाता है। सिर्फ तुम आत्मायें जैसे आती हो
वैसे मैं नहीं आता। मैं अन्त में इस तन में आकर प्रवेश करता हूँ। यह बातें कोई बाहर
का समझ न सके। बात बड़ी सहज है। फ़र्क सिर्फ इतना है जो बाप के बदले वैकुण्ठवासी
श्रीकृष्ण का नाम डाल दिया है। क्या श्रीकृष्ण ने वैकुण्ठ से नर्क में आकर राजयोग
सिखाया? श्रीकृष्ण कैसे कह सकता है देह सहित...... मामेकम् याद करो। देहधारी की याद
से पाप कैसे कटेंगे? श्रीकृष्ण तो एक छोटा बच्चा और कहाँ मैं साधारण मनुष्य के
वृद्ध तन में आता हूँ। कितना फ़र्क हो गया है। इस एकज़ भूल के कारण सभी मनुष्य पतित,
कंगाल बन गये हैं। न मैं सर्वव्यापी हूँ, न श्रीकृष्ण सर्वव्यापी है। हर शरीर में
आत्मा सर्वव्यापी है। मुझे तो अपना शरीर भी नहीं है। हर आत्मा को अपना-अपना शरीर
है। नाम हर एक शरीर पर अलग-अलग पड़ता है। न मुझे शरीर है और न मेरे शरीर का कोई नाम
है। मैं तो बूढ़ा शरीर लेता हूँ तो इसका नाम बदलकर ब्रह्मा रखा है। मेरा तो ब्रह्मा
नाम नहीं है। मुझे सदा शिव ही कहते हैं। मैं ही सर्व का सद्गति दाता हूँ। आत्मा को
सर्व का सद्गति दाता नहीं कहेंगे। परमात्मा की कभी दुर्गति होती है क्या? आत्मा की
ही दुर्गति और आत्मा की ही सद्गति होती है। यह सभी बातें विचार सागर मंथन करने की
हैं। नहीं तो दूसरों को कैसे समझायेंगे। परन्तु माया ऐसी दुस्तर है जो बच्चों की
बुद्धि आगे नहीं बढ़ने देती। दिन भर झरमुई झगमुई में ही टाइम वेस्ट कर देते हैं।
बाप से पिछाड़ने के लिए माया कितना फोर्स करती है। फिर कई बच्चे तो टूट पड़ते हैं।
बाप को याद न करने से अवस्था अचल-अडोल नहीं बन पाती। बाप घड़ी-घड़ी खड़ा करते, माया
गिरा देती। बाप कहते कभी हार नहीं खानी है। कल्प-कल्प ऐसा होता है, कोई नई बात नहीं।
मायाजीत अन्त में बन ही जायेंगे। रावण राज्य खलास तो होना ही है। फिर हम नई दुनिया
में राज्य करेंगे। कल्प-कल्प माया जीत बने हैं। अनगिनत बार नई दुनिया में राज्य किया
है। बाप कहते हैं बुद्धि को सदा बिजी रखो तो सदा सेफ रहेंगे। इसको ही स्वदर्शन
चक्रधारी कहा जाता है। बाकी इसमें हिंसा आदि की बात नहीं है। ब्राह्मण ही स्वदर्शन
चक्रधारी होते हैं। देवताओं को स्वदर्शन चक्रधारी नहीं कहेंगे। पतित दुनिया की
रस्म-रिवाज और देवी-देवताओं की रस्म-रिवाज में बहुत अन्तर है। मृत्युलोक वाले ही
पतित-पावन बाप को बुलाते हैं, हम पतितों को आकर पावन बनाओ। पावन दुनिया में ले चलो।
तुम्हारी बुद्धि में है आज से 5 हज़ार वर्ष पहले नई पावन दुनिया थी, जिसको सतयुग कहा
जाता है। त्रेता को नई दुनिया नहीं कहेंगे। बाप ने समझाया है - वह है फर्स्टक्लास,
वह है सेकण्ड क्लास। एक-एक बात अच्छी रीति धारण करनी चाहिए जो कोई आकर सुने तो
वण्डर खाये। कोई-कोई वण्डर भी खाते हैं, परन्तु फुर्सत नहीं जो पुरूषार्थ करें। फिर
सुनते हैं पवित्र जरूर बनना है। यह काम विकार ही मनुष्य को पतित बनाता है, उनको
जीतने से तुम जगतजीत बनेंगे। परन्तु काम विकार उन्हों की जैसे पूँजी है, इसलिए वह
अक्षर नहीं बोलते हैं। सिर्फ कहते हैं मन को वश में करो। लेकिन मन अमन तब हो जब
शरीर में नहीं हो। बाकी मन अमन तो कभी होता ही नहीं। देह मिलती है कर्म करने के लिए
तो फिर कर्मातीत अवस्था में कैसे रहेंगे? कर्मातीत अवस्था कहा जाता है मुर्दे को।
जीते जी मुर्दा अथवा शरीर से डिटैच। बाप तुमको शरीर से न्यारा बनने की पढ़ाई पढ़ाते
हैं। शरीर से आत्मा अलग है। आत्मा परमधाम की रहने वाली है। आत्मा शरीर में आती है
तो उसे मनुष्य कहा जाता है। शरीर मिलता ही है कर्म करने के लिए। एक शरीर छोड़ फिर
दूसरा शरीर कर्म करने लिए लेना है। शान्ति तो तब हो जब शरीर में नहीं है। मूलवतन
में कर्म होता नहीं। सूक्ष्मवतन की तो बात ही नहीं। सृष्टि का चक्र यहाँ फिरता है।
बाप और सृष्टि चक्र को जानना, इसको ही नॉलेज कहा जाता है। सूक्ष्मवतन में न सफेद
पोशधारी, न सजे सजाये, न नाग-बलाए पहनने वाले शंकर आदि ही होते हैं। बाकी ब्रह्मा
और विष्णु का राज़ बाप समझाते रहते हैं। ब्रह्मा यहाँ है। विष्णु के दो रूप भी यहाँ
हैं। वह सिर्फ साक्षात्कार का पार्ट ड्रामा में है, जो दिव्य दृष्टि से देखा जाता
है। क्रिमिनल आंखों से पवित्र चीज़ दिखाई न पड़े। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) अपने आपको सदा सेफ रखने के लिए बुद्धि को विचार सागर मंथन में बिज़ी
रखना है। स्वदर्शन चक्रधारी बनकर रहना है। झरमुई झगमुई में अपना समय नहीं गँवाना
है।
2) शरीर से डिटैच रहने की पढ़ाई जो बाप पढ़ाते हैं, वह पढ़नी है। माया के फोर्स
से बचने के लिए अपनी अवस्था अचल-अडोल बनानी है।