15-03-2025 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन
“मीठे बच्चे - अब वापिस घर
जाना है इसलिए देह सहित देह के सब सम्बन्धों को भूल एक बाप को याद करो, यही है सच्ची
गीता का सार''
प्रश्नः-
तुम बच्चों का
सहज पुरूषार्थ क्या है?
उत्तर:-
बाप कहते हैं
तुम बिल्कुल चुप रहो, चुप रहने से ही बाप का वर्सा ले लेंगे। बाप को याद करना है,
सृष्टि चक्र को फिराना है। बाप की याद से तुम्हारे विकर्म विनाश होंगे, आयु बड़ी
होगी और चक्र को जानने से चक्रवर्ती राजा बन जायेंगे - यही है सहज पुरूषार्थ।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) यह एक-एक अविनाशी ज्ञान का रत्न लाखों-करोड़ों रूपयों का है, इन्हें
दान कर कदम-कदम पर पदमों की कमाई जमा करनी है। आप समान बनाकर ऊंच पद पाना है।
2) विकर्मों से बचने के लिए देही-अभिमानी रहने का पुरूषार्थ करना है। मन्सा में
कभी बुरे संकल्प आयें तो उन्हें रोकना है। अच्छे संकल्प चलाने हैं। कर्मेन्द्रियों
से कभी कोई उल्टा कर्म नहीं करना है।
वरदान:-
रूहानियत के
प्रभाव द्वारा फरिश्ते पन का मेकप करने वाले सर्व के स्नेही भव
जो बच्चे सदा बापदादा के
संग में रहते हैं - उन्हें संग का रंग ऐसा लगता है जो हर एक के चेहरे पर रूहानियत
का प्रभाव दिखाई देता है। जिस रूहानियत में रहने से फरिश्ते पन का मेकप स्वत: हो
जाता है। जैसे मेकप करने के बाद कोई कैसा भी हो लेकिन बदल जाता है, मेकप करने से
सुन्दर लगता है। यहाँ भी फरिश्ते पन के मेकप से चमकने लगेंगे और यह रूहानी मेकप
सर्व का स्नेही बना देगा।
स्लोगन:-
ब्रह्मचर्य, योग तथा दिव्यगुणों की धारणा ही वास्तविक पुरूषार्थ है। र्ं
मातेश्वरी जी के
अनमोल महावाक्य
“कर्म-बन्धन तोड़ने
का पुरुषार्थ''
बहुत मनुष्य
प्रश्न पूछते हैं कि हमें क्या करना है, कैसे अपना कर्म-बन्धन तोड़ें? अब हरेक की
जन्मपत्री को तो बाप जानता है। बच्चे का काम है एक बार अपनी दिल से बाप को समर्पित
हो जाये, अपनी जवाबदारी उनके हाथ में दे देवे। फिर वो हरेक को देख राय देगा कि तुमको
क्या करना है, सहारा भी प्रैक्टिकल में लेना है, बाकी ऐसे नहीं सिर्फ सुनते रहो और
अपनी मत पर चलते चलो। बाप साकार है तो बच्चे को भी स्थूल में पिता, गुरु, टीचर का
सहारा लेना है। ऐसे भी नहीं आज्ञा मिले और पालन न कर सके तो और ही अकल्याण हो जाये।
तो फरमान पालन करना भी हिम्मत चाहिए, चलाने वाला तो रमज़बाज़ है, वो जानता है इसका
कल्याण किसमें है, तो वह ऐसे डायरेक्शन देगा कि कैसे कर्म-बन्धन तोड़ो। कोई को फिर
यह ख्याल में नहीं आना चाहिए कि फिर बच्चों आदि का क्या हाल होगा? इसमें कोई घरबार
छोड़ने की बात नहीं है, यह तो थोड़े से बच्चों का इस ड्रामा में पार्ट था तोड़ने
का, अगर यह पार्ट न होता तो तुम्हारी जो अब सेवा हो रही है फिर कौन करे? अब तो
छोड़ने की बात हीं नहीं है, मगर परमात्मा का हो जाना है, डरो नहीं, हिम्मत रखो। बाकी
जो डरते हैं वो न खुद खुशी में रहते हैं, न फिर बाप के मददगार बनते हैं। यहाँ तो
उनके साथ पूरा मददगार बनना है, जब जीते जी मरेंगे तब ही मददगार बन सकते हैं। कहाँ
भी अटक पड़ेंगे तो फिर वो मदद देकर पार करेगा। तो बाबा के साथ मन्सा-वाचा-कर्मणा
मददगार होना है, इसमें जरा भी मोह की रग होगी तो वो गिरा देगी। तो हिम्मत रखो आगे
बढ़ो। कहाँ हिम्मत में कमजोर होते हैं तो मूँझ पड़ते हैं इसलिए अपनी बुद्धि को
बिल्कुल पवित्र बनाना है, विकार का जरा भी अंश न हो, मंजिल कोई दूर है क्या! मगर
चढ़ाई थोड़ी टेढी-बांकी है, लेकिन समर्थ का सहारा लेंगे तो न डर है, न थकावट है।
अच्छा। ओम् शान्ति।
अव्यक्त इशारे -
सत्यता और सभ्यता रूपी क्लचर को अपनाओ
आपका बोल और
स्वरूप दोनों साथ-साथ हों - बोल स्पष्ट भी हों, उसमें स्नेह भी हो, नम्रता मधुरता
और सत्यता भी हो लेकिन स्वरूप की नम्रता भी हो, इसी रूप से बाप को प्रत्यक्ष कर
सकेंगे। निर्भय हो लेकिन बोल मर्यादा के अन्दर हों, फिर आपके शब्द कड़े नहीं, मीठे
लगेंगे।